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मटर की फसल

जानिए मटर की बुआई और देखभाल कैसे करें

जानिए मटर की बुआई और देखभाल कैसे करें

मटर रबी सीजन की प्रमुख फसल है। प्रमुख सब्जी व दलहन की फसल होने के कारण मटर का बहुत अधिक महत्व है। अगैती फसल की मटर बाजार में काफी महंगी बिकती है। किसान भाइयों को चाहिये कि अगैती फसल की खेती करके पहले मार्केट में मटर की फलियों को लाकर बेचें। इससे काफी अधिक लाभ होता है।

मटर की बुआई किस प्रकार की जाती है?

नम शीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में मटर की खेती की जाती है। इसलिये हमारे देश में रबी के सीजन में सर्दियों के मौसम में मटर की खेती अधिकांश क्षेत्रों में की जाती है। इसकी खेती की बुआई के  समय 20 से 24 डिग्री का तापमान होना चाहिये तथा फसल की पैदावार के लिए 10 से 20 डिग्री का तापमान होना चाहिये। मटर की खेती के लिए मटियार दोमट तथा दोमट भूमि सबसे उत्तम होती है। सिंचित क्षेत्र में बलुई दोमट में भी मटर की खेती की जा सकती है। मटर की खेती के लिए खरीफ की फसल के बाद खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिये। उसके बाद दो तीन जुताई करके मिट्टी के ढेले फोड़ने के लिए पाटा लगाना चाहिये। मिट्टी एकदम भुरभुरी हो जानी चाहिये। खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिये। यदि खेत में नमी न हो तो पलेवा करके बुआई करनी चाहिये। मटर की अगैती फसल का समय 15 नवम्बर तक माना जाता है। इसके बाद भी पछैती मटर की खेती की जा सकती है। पहाड़ी क्षेत्र में अच्छी किस्म की  मटर की बुआई एक माह पहले ही शुरू हो जाती है। मध्यम किस्म की मटर की बुआई नवम्बर में ही होती है। इसी तरह पहाड़ी व मैदानी क्षेत्रों में बुआई नवम्बर तक होता है। बुआई से पहले मटर के बीज का उपचार किया जाना बहुत जरूरी होता है। बीजों का उपचार राइजोबियम से करना चाहिये। राजोबियम कल्चर  से बीज को उपचारित करना चाहिये। बीजों को उपचारित करने के लिए 50 ग्राम गुड़ और 2 ग्राम गोंद को एक लीटर पानी में घोल कर गर्म करके मिश्रण तैयार करें। उसे ठंडा होने दे जब ये घोल ठंडा हो जाये तो उसमें राइजोबियम कल्चर को मिलाकर अच्छी तरह मिला कर उससे उपचारित करें। इस तरह उपचारित करने से पहले बीजों का शोधन कर लेना चाहिये। शोधन करने के लिए दो किलो थायरम और एक किलो कार्बन्डाजिम मिलाकर बीजों का उपचार करें। बीजों को छाया में सुखायें। जब बीज का उपचार और शोधन हो जाये तब बुआई करें। बुआई के लिए 70 से 80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। यदि पछैती फसल की खेती करनी है तो उसमें आपको 100 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होगी।  देशी हल या सीड ड्रिल पद्धति से बुआई करनी चाहिये। किसान भाइयों को चाहिये कि  लाइन से लाइन की दूरी एक फुट से डेढ़ फुट की रखें। पौधे से पौधे की दूरी 5 से 7 सेंटीमीटर रखनी चाहिये। बीज की गहराई 4 से 7 सेंटीमीटर रखनी चाहिये।

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मटर की खेती की देखभाल ऐसे करें

बुआई के बाद सबसे पहले क्या करें, किसान भाइयों को चाहिये कि मटर की खेती में सबसे पहले खरपतवार का नियंत्रण करना चाहिये। बुआई के एक सप्ताह बाद ही खेत की निगरानी करनी चाहिये। यदि खरपतवार अधिक दिख रहा हो तो उसका निदान करने का प्रयास करना चाहिये। खेत की निराई गुड़ाई करने के साथ ही पौधों की दूरी को भी मेनटेन करना चाहिये। यदि आवश्यकता से अधिक बीज गिर गया है और पौधे पास पास उग आये हैं तो उनकी छंटाई करनी चाहिये। Matar

सिंचाई का प्रबंधन

मटर की फसल बहुत नाजुक होती है और सर्दी के मौसम में होती है। इसलिये इसकी सिंचाई का विशेष प्रबंधन करना चाहिये। शरदकालीन वर्षा वाले क्षेत्रों में मटर की खेती के लिए 2 से 3 सिंचाई जरूरी बताई गर्इं हैं। पहली सिंचाई एक से डेढ़ महीने के बाद की जानी चाहिये। दूसरी सिंचाई फलियों के आने के समय की जानी चाहिये। इस बीच यदि क्षेत्र में पाला पड़ता हो तो उससे पहले मटर के खेत में सिंचाई करनी होती है। अंतिम सिंचाई मटर के दाने पुष्ट होने के समय करनी चाहिये।

खरपतवार नियंत्रण कैसे करें

मटर की फसल की निराई व गुड़ाई करके खरपतवार का नियंत्रण किया जाता है। इससे मटर के पौधों की जड़ मजबूत होती है तथा पौधे में शाखाएं विकसित होती हैं जिससे पैदावार बढ़ जाती है। निराई गुड़ाई के अलावा मटर की खेती के खरपतवार का नियंत्रण रसायनों से भी किया जा सकता है। खरपतवार नियंत्रण के लिए ढाई से तीन लीटर पैण्डीमैथलीन प्रति हेक्टेयर बुआई के बाद तीन दिन में 500 लीटर पानी में मिलाकर उसका छिड़काव करना चाहिये। किसान भाई मेट्रीव्यूजीन और डब्ल्यूपी   मिलाकर बुआई के बाद एक पखवाड़े में  छिड़काव करें।

मटर की फसल में लगने वाले रोग और रोकथाम

मटर की फसल में कई रोग लगते हैं। किसान भाइयों को समय पर इन रोगों को उपचार करना चाहिये।
  1. चूर्णी फफूंद रोग से फसल को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। नमी के समय यह रोग मटर की फसल में तेजी से लगता है। इस रोग के लगने से तने व पत्तियों पर सफेद चूर्ण इकट्ठा हो जाता है। इस रोग के दिखने के बाद किसान भाइयों को चाहिये कि डाइनोकप 48 प्रतिशत ईसी की 400 मिलीलीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें। एक बार छिड़काव से रोग न समाप्त हो तो दो तीन बार 15-15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिये।
  2. मृदुरोमिल फफूंद की बीमारी मटर के पौधों में पत्तियों की निचली सतह पर लगती है। इससे फसल को बहुत नुकसान होता है। इसके नियंत्रण के लिए 3 किलोग्राम सल्फर 80 प्रतिशत डब्ल्यूपी या डाइनोकेप 48 प्रतिशत ईसी की दो लीटर मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करनी चाहिये।

कीट प्रकोप और रोकथाम

1.फली बेधक कीट के रोग लगने से मटर की फसल में कीड़े लगते हैं जो मटर की फलियों और दानों को खा जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए मेलाथियान दो मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिये। 2.चेपा यानी लीफ माइनर कीट लगे के कारण पत्तियों पर सफेद रंग की धारियां दिखाई लगने लगतीं हैं। चेपा  तने व पत्तियों का रस चूस कर नुकसान पहुंचाते हैं। इनकी रोकथाम के लिये मोनोक्रोटोफॉस 3 मिलीलीटर को प्रति लीटर पानी में मिलाकर घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। 3.तना मक्खी का प्रकोप अगैती किस्म की मटर की फसल में अधिक होता है। यह कीट पौधों की बढ़वार को पूरी तरह से रोक देता है। इस रोग का नियंत्रण करने के लिए कार्बोफ्यूरान 3 जी नामक रसायन को 10 किलोग्राम की दर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिये। 4.पत्ती सुरंगक: इस कीट का प्रकोप दिसम्बर माह में देखा जाता है। यह कीट मार्च तक सक्रिय रहता है। यह कीट पत्तियों में सुरंग बना कर रस चूसता रहता है। इसके नियंत्रण के एि मेटासिस्टौक्स 26 ईसी की एक लीटर की मात्रा को 1000 लीटर पानी में मिलाकर घोल बनायें और उसका छिड़काव करें। जरूरत के अनुसार बार बार छिड़काव करते रहें। 5.फल बेधक कीट: यह कीट फलियों में छेद करके दानों को खा जाती हैं। इसका अधिक होने से पूरी फसल बरबाद हो सकती है। इस रोग की रोकथाम करने के लिस किसान भाइयों को मोनोक्रोटोफॉस 36 ईसी की 750 मिली लीटर मात्रा को 600 से 700 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें। एक बार में लाभ न मिले तो इसका छिड़काव  जल्दी-जल्दी करें।
मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती से संबंधित अहम पहलुओं की विस्तृत जानकारी

मटर की खेती सामान्य तौर पर सर्दी में होने वाली फसल है। मटर की खेती से एक अच्छा मुनाफा तो मिलता ही है। साथ ही, यह खेत की उर्वराशक्ति को भी बढ़ाता है। इसमें उपस्थित राइजोबियम जीवाणु भूमि को उपजाऊ बनाने में मदद करता है। अगर मटर की अगेती किस्मों की खेती की जाए तो ज्यादा उत्पादन के साथ भूरपूर मुनाफा भी प्राप्त किया जा सकता है। इसकी कच्ची फलियों का उपयोग सब्जी के रुप में उपयोग किया जाता है. यह स्वास्थ्य के लिए भी काफी फायदेमंद होती है. पकने के बाद इसकी सुखी फलियों से दाल बनाई जाती है.

मटर की खेती

मटर की खेती सब्जी फसल के लिए की जाती है। यह कम समयांतराल में ज्यादा पैदावार देने वाली फसल है, जिसे व्यापारिक दलहनी फसल भी कहा जाता है। मटर में राइजोबियम जीवाणु विघमान होता है, जो भूमि को उपजाऊ बनाने में मददगार होता है। इस वजह से
मटर की खेती भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए भी की जाती है। मटर के दानों को सुखाकर दीर्घकाल तक ताजा हरे के रूप में उपयोग किया जा सकता है। मटर में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व जैसे कि विटामिन और आयरन आदि की पर्याप्त मात्रा मौजूद होती है। इसलिए मटर का सेवन करना मानव शरीर के लिए काफी फायदेमंद होता है। मटर को मुख्यतः सब्जी बनाकर खाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। यह एक द्विबीजपत्री पौधा होता है, जिसकी लंबाई लगभग एक मीटर तक होती है। इसके पौधों पर दाने फलियों में निकलते हैं। भारत में मटर की खेती कच्चे के रूप में फलियों को बेचने तथा दानो को पकाकर बेचने के लिए की जाती है, ताकि किसान भाई ज्यादा मुनाफा उठा सकें। अगर आप भी मटर की खेती से अच्छी आमदनी करना चाहते है, तो इस लेख में हम आपको मटर की खेती कैसे करें और इसकी उन्नत प्रजातियों के बारे में बताऐंगे।

मटर उत्पादन के लिए उपयुक्त मृदा, जलवायु एवं तापमान

मटर की खेती किसी भी प्रकार की उपजाऊ मृदा में की जा सकती है। परंतु, गहरी दोमट मृदा में मटर की खेती कर ज्यादा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त क्षारीय गुण वाली भूमि को मटर की खेती के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है। इसकी खेती में भूमि का P.H. मान 6 से 7.5 बीच होना चाहिए। यह भी पढ़ें: मटर की खेती का उचित समय समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय जलवायु मटर की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। भारत में इसकी खेती रबी के मौसम में की जाती है। क्योंकि ठंडी जलवायु में इसके पौधे बेहतर ढ़ंग से वृद्धि करते हैं तथा सर्दियों में पड़ने वाले पाले को भी इसका पौधा सहजता से सह लेता है। मटर के पौधों को ज्यादा वर्षा की जरूरत नहीं पड़ती और ज्यादा गर्म जलवायु भी पौधों के लिए अनुकूल नहीं होती है। सामान्य तापमान में मटर के पौधे बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं, किन्तु पौधों पर फलियों को बनने के लिए कम तापमान की जरूरत होती है। मटर का पौधा न्यूनतम 5 डिग्री और अधिकतम 25 डिग्री तापमान को सहन कर सकता है।

मटर की उन्नत प्रजातियां

आर्केल

आर्केल किस्म की मटर को तैयार होने में 55 से 60 दिन का वक्त लग जाता है। इसका पौधा अधिकतम डेढ़ फीट तक उगता है, जिसके बीज झुर्रीदार होते हैं। मटर की यह प्रजाति हरी फलियों और उत्पादन के लिए उगाई जाती है। इसकी एक फली में 6 से 8 दाने मिल जाते हैं।

लिंकन

लिंकन किस्म की मटर के पौधे कम लम्बाई वाले होते हैं, जो बीज रोपाई के 80 से 90 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देते हैं। मटर की इस किस्म में पौधों पर लगने वाली फलियाँ हरी और सिरे की ऊपरी सतह से मुड़ी हुई होती है। साथ ही, इसकी एक फली से 8 से 10 दाने प्राप्त हो जाते हैं। जो स्वाद में बेहद ही अधिक मीठे होते हैं। यह किस्म पहाड़ी क्षेत्रों में उगाने के लिए तैयार की गयी है। यह भी पढ़ें: सब्ज्यिों की रानी मटर की करें खेती

बोनविले

बोनविले मटर की यह किस्म बीज रोपाई के लगभग 60 से 70 दिन उपरांत पैदावार देना शुरू कर देती है। इसमें निकलने वाला पौधा आकार में सामान्य होता है, जिसमें हल्के हरे रंग की फलियों में गहरे हरे रंग के बीज निकलते हैं। यह बीज स्वाद में मीठे होते हैं। बोनविले प्रजाति के पौधे एक हेक्टेयर के खेत में तकरीबन 100 से 120 क्विंटल की उपज दे देते है, जिसके पके हुए दानो का उत्पादन लगभग 12 से 15 क्विंटल होता है।

मालवीय मटर – 2

मटर की यह प्रजाति पूर्वी मैदानों में ज्यादा पैदावार देने के लिए तैयार की गयी है। इस प्रजाति को तैयार होने में 120 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। इसके पौधे सफेद फफूंद और रतुआ रोग रहित होते हैं, जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 25 से 30 क्विंटल के आसपास होता है।

पंजाब 89

पंजाब 89 प्रजाति में फलियां जोड़े के रूप में लगती हैं। मटर की यह किस्म 80 से 90 दिन बाद प्रथम तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है, जिसमें निकलने वाली फलियां गहरे रंग की होती हैं तथा इन फलियों में 55 फीसद दानों की मात्रा पाई जाती है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 60 क्विंटल का उत्पादन दे देती है।

पूसा प्रभात

मटर की यह एक उन्नत क़िस्म है, जो कम समय में उत्पादन देने के लिए तैयार की गई है | इस क़िस्म को विशेषकर भारत के उत्तर और पूर्वी राज्यों में उगाया जाता है। यह क़िस्म बीज रोपाई के 100 से 110 दिन पश्चात् कटाई के लिए तैयार हो जाती है, जो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 40 से 50 क्विंटल की पैदावार दे देती है। यह भी पढ़ें: तितली मटर (अपराजिता) के फूलों में छुपे सेहत के राज, ब्लू टी बनाने में मददगार, कमाई के अवसर अपार

पंत 157

यह एक संकर किस्म है, जिसे तैयार होने में 125 से 130 दिन का वक्त लग जाता है। मटर की इस प्रजाति में पौधों पर चूर्णी फफूंदी और फली छेदक रोग नहीं लगता है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 क्विंटल तक की पैदावार दे देती है।

वी एल 7

यह एक अगेती किस्म है, जिसके पौधे कम ठंड में सहजता से विकास करते हैं। इस किस्म के पौधे 100 से 120 दिन के समयांतराल में कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं। इसके पौधों में निकलने वाली फलियां हल्के हरे और दानों का रंग भी हल्का हरा ही पाया जाता है। इसके साथ पौधों पर चूर्णिल आसिता का असर देखने को नहीं मिलता है। इस किस्म के पौधे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 70 से 80 क्विंटल की उपज दे देते हैं।

मटर उत्पादन के लिए खेत की तैयारी किस प्रकार करें

मटर उत्पादन करने के लिए भुरभुरी मृदा को उपयुक्त माना जाता है। इस वजह से खेत की मिट्टी को भुरभुरा करने के लिए खेत की सबसे पहले गहरी जुताई कर दी जाती है। दरअसल, ऐसा करने से खेत में उपस्थित पुरानी फसल के अवशेष पूर्णतय नष्ट हो जाते हैं। खेत की जुताई के उपरांत उसे कुछ वक्त के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाता है, इससे खेत की मृदा में सही ढ़ंग से धूप लग जाती है। पहली जुताई के उपरांत खेत में 12 से 15 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के मुताबिक देना पड़ता है।

मटर के पौधों की सिंचाई कब और कितनी करें

मटर के बीजों को नमी युक्त भूमि की आवश्यकता होती है, इसके लिए बीज रोपाई के शीघ्र उपरांत उसके पौधे की रोपाई कर दी जाती है। इसके बीज नम भूमि में बेहतर ढ़ंग से अंकुरित होते हैं। मटर के पौधों की पहली सिंचाई के पश्चात दूसरी सिंचाई को 15 से 20 दिन के समयांतराल में करना होता है। तो वहीं उसके उपरांत की सिंचाई 20 दिन के उपरांत की जाती है।

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण किस प्रकार करें

मटर के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि का उपयोग किया जाता है। इसके लिए बीज रोपाई के उपरांत लिन्यूरान की समुचित मात्रा का छिड़काव खेत में करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अगर आप प्राकृतिक विधि का उपयोग करना चाहते हैं, तो उसके लिए आपको बीज रोपाई के लगभग 25 दिन बाद पौधों की गुड़ाई कर खरपतवार निकालनी होती है। इसके पौधों को सिर्फ दो से तीन गुड़ाई की ही आवश्यकता होती है। साथ ही, हर एक गुड़ाई 15 दिन के समयांतराल में करनी होती है।